छत्तीसगढ़ सियासी हलचल : अधूरा अभयदान

रायपुर (ब्रजेश चौबे). छत्तीसगढ़ में दिसंबर 2020 से जारी सियासी उठापटक शांत होता नजर नहीं आ रहा है। यह शांत होने वाला भी नहीं है। उठापटक कार्यकाल पूरा होते तक चलेगा और सत्ता विराम अवस्था में पहुंच जाएगी। दरअसल सत्ता की भूख से बिलबिलाहट का यही परिणाम होता है। करीब आठ महीने तक सूबे में ही चल रही सत्ता की भिड़ंत अगस्त महीने में सूबे की सरहद पार कर सीधे दिल्ली दरबार पहुंच गई। आठ माह तक सत्ता की लड़ाई में खुद को शहंशाह समझने वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सेफ जोन से अचानक अनसेफ जोन में दाखिल हो गए। आलम यह रहा कि मुख्यमंत्री पद की कुर्सी फिसलने की नौबत आ गई है। तब वे अपने सियासी पाठशाला की पाठ शक्ति प्रदर्शन को याद कर पहले रायपुर एयरपोर्ट में समर्थकों का शक्ति प्रदर्शन कराए फिर विधायकों का हुजूम लेकर दिल्ली पहुंच गए। राहुल गांधी के साथ चार घंटे की मीटिंग के दौर के बाद खबर आई कि बच गए। कब तक बचे हैं, दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। रायपुर से लेकर दिल्ली तक जो सियासी संग्राम मचा रहा इससे स्पष्ट हो गया कि कार्यकाल का पहला ढाई साल कंफर्ट जोन में गुजारने वाले भूपेश बघेल अपने आखिरी ढाई साल गुजार पाएंगे या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता। उनकी कुर्सी पर तलवार लटक चुकी है। दूसरे दावेदार टीएस सिंहदेव उन पर भारी पड़ चुके हैं। विधायक बृहस्पत सिंह से लेकर वे जो दांव खेले इससे उनकी कुर्सी राहुल गांधी की पहली बैठक में जा चुकी थी। 27 अगस्त की दूसरी बैठक में किसी तरह से प्रियंका गांधी ने मामला संभाला तब कहीं अभयदान मिल सका, वह भी अधूरा। अभयदान कब तक के लिए है कहा नहीं जा सकता।

ढाई-ढाई साल का फार्मूला देकर शांत कराया गया
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कुर्सी पर कांटे तो उस दिन उग आया था जब सीएम चयन के मौके पर नाराजगी व गुस्से में पैर पटक कर वे दिल्ली दरबार से निकल गए थे। तब मुख्यमंत्री पद के एक अन्य प्रबल दावेदार टीएस सिंहदेव को बायपास कर या ढाई-ढाई साल का फार्मूला देकर शांत कराया गया और शपथ भूपेश बघेल को दिलाई गई थी। तब भूपेश बघेल सीएम की कुर्सी पर उग आए कांटे को फूल में तब्दील कर पांच साल का कार्यकाल निर्बाध रूप से पूरा कर सकते थेे, लेकिन ऐसा करने के बजाय उन्होंने कांटों को नश्तर में तब्दील कर दिए। अब यही चूभ रहा है, इससे लहूलुहान होकर वे बिलबिला उठे हैं। कहने का आशय यह है कि वे सीएम पद के दूसरे प्रबल दावेदार टीएस सिंहदेव के साथ पटरी बिठाकर बेहतर ढंग से कार्य कर सकते थे। इसके बजाय वे उन्हें कांटे समझ कर निपटाने लगे रहे यही उनको भारी पड़ रहा है। वे सिहंदेव से सिर्फ अदावत नहीं रखे बल्कि साइडलाइन कर उनकी सियासत खत्म करने की चालें भी चली। इसके लिए सरगुजा के आदिवासी विधायक बृहस्पत सिंह को मोहरा बनाया गया, मंत्री अमरजीत भगत को सिंहदेव की कद कटाई के मोर्चे पर लगाया। यह सब सीएम भूपेश पर भारी पड़ते गया। इसका जवाब सिंहदेव बेहद संयत होकर देते रहे और उनका पलड़ा राज्य व दिल्ली दरबार में भारी होते गया। इसी का नतीजा यह रहा कि 24 अगस्त को दिल्ली दरबार में राहुल गांधी के साथ बैठक में उनकी कुर्सी एक तरह से जा चुकी थी। उनको संकेत दिया जा चुका था। इसकी प्रतिक्रिया सहज भाव से स्वीकार किए जाने बजाय अगले दिन 25 अगस्त को रायपुर स्थित स्वामी विवेकानंद एयरपोर्ट में नारेबाजी व शक्ति प्रदर्शन में आलाकमान के खिलाफत के रूप में देखने को मिला। तब भूपेश बघेल के चेहरे का भाव किसी जंगबाज से कम न था।

सत्ता की मलाई खा रहे पुछल्ले भी दिल्ली पहुंचे

उनका शक्ति प्रदर्शन किसी भी भद्र राजनीतिज्ञों व बौद्धिक समाज के गले नहीं उतरा। जाहिर है कांग्रेस आलाकमान को भी नागवार गुजरा। इसके बाद दिल्ली में तेजी से घटनाक्रम घूमा और छत्तीसगढ़ को लेकर बड़े फैसले की ओर आलाकमान का रुख हो गया। सिंहदेव को दिल्ली दरबार व कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं का परोक्ष समर्थन मिलने लगा। माहौल एक बार फिर सिंहदेव के पक्ष में मजबूत हो गया। इस कड़ी में एक बार फिर भूपेश बघेल का दिल्ली बुलावा 27 अगस्त को हुआ। इसके पहले ही दिल्ली कूच करने व शक्ति प्रदर्शन की रणनीति बना ली गई थी। इसके अनुरूप कुछ विधायकों को दिल्ली रवाना करा दिया। बचे विधायक व मंत्री अगले दिन दिल्ली रवाना हुए। इनके अलावा सत्ता की मलाई खा रहे पुछल्ले भी दिल्ली पहुंचे। पर्दे के बाहर चाहे जितनी भी बात बना ली जाए लेकिन सबको पता था कि बगैर मुख्यमंत्री के इशारे के किसी भी विधायक की दिल्ली में परेड़ करने की हिम्मत नहीं थी। जबकि उन्हें दिल्ली न आने की मौखिक हिदायत दी जा चुकी थी। इसके बाद भी बगैर अंजाम की परवाह किए कूच करना सीधे तौर पर मुख्यमंत्री के इशारे को इंगित करता है।

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पूरी चालें उल्टी पड़ गई

ये पूरी चालें भूपेश बघेल को उल्टी पड़ गई। इस पूरे घटनाक्रम में सिंहदेव का चाहे जो हो, लेकिन भूपेश बघेल को भारी पड़ता दिख रहा है। अभी कुछ भी शांत नहीं हुआ है। हो सकता है उन्हें अभयदान मिल गया हो लेकिन यह अधूरा है। हो सकता है वे गिनती के महीने के लिए भी हो। यह भी हो सकता है कि एक-दो सप्ताह के लिए मुख्यमंत्री हों। उनकी जगह सिंहदेव शपथ ले सकते हैं। जाहिर है अभी छत्तीसगढ़ की सियासी फिजां शांत होने वाली नहीं है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दिल्ली में विधायकों की आलाकमान के सम्मुख परेड करा कर यह बता दिया है कि असल में विधायक दल के नेता वही हैं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। विधायक सत्ता रूपी गुड़ के साथ ही चिपके रहते हैं। पंजाब राज्य इसका ताजा उदाहरण है, जहां नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष बनने के पहले तक जो विधायक मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ खड़े थे वे पाला बदल कर सिद्धू के साथ हो लिए।

भूपेश एक्सप्रेस की आशंका…?
वर्ष 2013 में कांग्रेस के भीतर गुटबाजी इतने उफान पर थी कि कांग्रेस आलाकमान का दम फूल गया था। दरअसल इसी वर्ष विधानसभा का चुनाव था और आलाकमान को एक तरह से ब्लैकमेल करने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कांग्रेस के भीतर ऐसी सेंध लगाई थी कि उसे किसी भी लेप से भरा नहीं जा सकता था। इसमें कोई संदेह नहीं तब जोगी छत्तीसगढ़ के एकमात्र मॉस लीडऱ थे। कांग्रेस से उपेक्षा के चलते वे खुद का समानांतर संगठन चलाना शुरू कर दिए थे। यहां तक कि वे कुछ विधानसभा क्षेत्रों में खुद की ओर से प्रत्याशी चयन कर घोषित भी कर दिए थे। वे जहां जाते लोगों का हुजूम उमड़ रहा था। तब उनके राज्यव्यापी दौरे को मीडिया ने जोगी एक्सप्रेस की संज्ञा दी थी। उनके रुख से तय हो गया था कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती थी। इसी बात को ध्यान रखकर कांग्रेस आलाकमान को जोगी के साथ परोक्ष रूप से समझौता करना पड़ा था। कुछ इसी तरह की स्थिति भूपेश बघेल ने भी निॢमत कर दी है। जिस तरह से रायपुर से लेकर दिल्ली तक उन्होंने विधायकों-मंत्रियों की परेड़ कराई वह भूपेश एक्सप्रेस से कम नहीं था। इसके अलावा कांग्रेस की बड़ी संख्या में कार्यकर्ता मोर्चेबंदी पर उतार दिए थे। इसके पीछे भले उनका मकसद अपना पद बचाना हो लेकिन वे ऐसा कर आलाकमान को सीधी चुनौती दे चुके हैं। इससे आलाकमान को आखिरकार झुकना पड़ा, भले ही यह सप्ताह या महीने के लिए हो। आलाकमान का झुकना सीधे तौर पर भूपेश बघेल को मजबूत कर गया, हो सकता है ऐसा हो, लेकिन इसका जीवन संक्षिप्त काल तक ही है। इसकी कीमत आगे चल कर कांग्रेस को भुगतनी पड़ सकती है। अजीत जोगी ने जो एक्सप्रेस चलाया और चरम तक गुटबाजी का खेल किया नजीता कांग्रेस छत्तीसगढ़ में 15साल तक सत्ता से बाहर रही। वही स्थिति भूपेश बघेल द्वारा कराई गई गुटबाजी और शक्ति प्रदर्शन से निर्मित हो सकती है। भूपेश बघेल अपनी ताकत का प्रदर्शन करा कर सियासी रुख से आलाकमान को अवगत करा दिए हैं। इसका सीधा आशय यह है उन्हें छेडऩे की कोशिश की गई तो कांग्रेस एक बार फिर विभाजन की ओर बढ़ सकती है। हालांकि जोगी और भूपेश बघेल में जमीन आसमान का फर्क है। जोगी निश्चित तौर पर जनता के लीडर थे जबकि भूपेश मुख्यमंत्री पद पर ढाई साल रहने के बाद भी पूरे राज्य में स्वीकार्य नेता नहीं बन पाए हैं। इसलिए यदि वे बगावत भी करते हैं तो कांग्रेस को कोई खास फर्क पडऩे वाला नहीं है।

आलाकमान की नहीं माने भूपेश
पिछले साल दिसंबर से लेकर इस साल अगस्त तक मचे सियासी घमासान के बीच भूपेश बघेल यही कहते रहे कि वे आलाकमान के कहने पर तुरंत मुख्यमंत्री का पद छोड़ देंंगे, लेकिन उनका रुख इसके सर्वथा विपरीत रहा है। विवाद श्ुारूहोने के बाद से आठ महीने गुजर गए उन्हें आलाकमान ने सीधे तौर पर पद छोडऩे तो नहीं कहा, लेकिन सियासी लक्ष्मण रेखा लांघने की इजाजत भी नहीं दी थी। इस लिहाज से भूपेश बघेल अपनी बात से मुकरे तो नहीं लेकिन लक्ष्मण रेखा लांघना मुकरने से कम भी नहीं है। इस बीच उन्होंने सत्ता संघर्ष के लिहाज से जितने भी सियासी कदम उठाए वह आलाकमान को सीधी चुनौती देने वाला रहा है। 25 अगस्त को रायपुर एयरपोर्ट में जो किया अथवा कराया गया वह आलाकमान की परवाह नहीं करने की श्रेणी में आता है। किसी भी पार्टी का आलाकमान अपनी ही पार्टी के नेता के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन को वाजिब नहीं ठहरा सकता। इसके बाद भी इस पर विराम लगाने के बजाय विधायकों व मंत्रियों की परेड दिल्ली दरबार तक कराना आलाकमान को सीधी चुनौती नहीं तो और क्या है? इससे आलाकमान की पेशगी पर बल तो दिया ही राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की फजीहत भी कराई गई। 28 अगस्त को वापस रायपुर आगमन पर फिर से शक्ति प्रदर्शन कराया गया। क्या यह आलाकमान की बात मानना है? हरगिज नहीं। आलाकमान के कहने पर तत्काल पद छोडऩे की सार्वजनिक तौर पर घोषणा करने वाले भूपेश बघेल को ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि वे सियासी ताकत का प्रदर्शन करा दिए। जाहिर है वे किसी भी कीमत पर मुख्यमंत्री पद नहीं छोडऩा चाह रहे हैं इसीलिए इस तरह का प्रदर्शन कराए। इन सब हथकंडों से लगता है वे आलाकमान को ही अपनी बात मानने के लिए एक तरह से बाध्य कर रहे हैं। फिर तो जाहिर है वे क्या चाह रहे हैं। यह संदेश आलाकमान को चुभ गया है। इसके चलते राहुल गांधी अपने छत्तीसगढ़ दौरे के दौरान बड़ा फैसला कर सकते हैं। इसके तहत भूपेश बघेल का पद जा सकता है। सिंहदेव के 28 अगस्त को स्वामी विवेकानंद एयरपोर्ट में परोक्ष रूप से दिए बयान से झलक रहा है कि आलाकमान कुछ बडा़ फैसला कर सकते हैं। आलाकमान का निर्देश मानने के मामले में भूपेश के बजाय सिंहदेव खरे उतरे हैं। भूपेश बघेल के शक्ति प्रदर्शन से यह संदेश दिया गया है कि उनकी सरकार को छेड़ा गया तो कांग्रेस की सरकार गिर सकती है। यह बात कतिपय मंत्री व विघायकों ने कही भी है। खैर, ऐेसा कुछ नहीं होने वाला। कांग्रेस पार्टी में भी कच्चे लोग नहीं बैठे हैं।

राहुल के आने मायने
सीएम भूपेश बघेल ने मीडिया के समक्ष जानकारी दी है कि केंद्रीय नेता राहुल गांधी सूबे का दौरा करेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि दौरे की शुरुआत बस्तर से होगी। लगभग 2 दिन राहुल गांधी बस्तर में रुकेंगे, इसके बाद मैदानी हिस्सों का 2 दिनों का दौरा करेंगे और सरगुजा इलाके में भी 2 दिन बिताएंगे। सीएम भूपेश बघेल का कहना है गुजरात मॉडल के बाद अब देश के सामने छत्तीसगढ़ मॉडल है और इसे देखने हमारे नेता पहुंचेंगे। उन्होंने यह भी कहा राहुल गांधी के नेतृत्व में ही छत्तीसगढ़ के बेहतर कामों को देश देखेगा। यह तो सब ठीक है लेकिन राहुल गांधी 33 महीने गुजरने के बाद वह भी मचे सियासी घमासान के बीच दौरा कर रहे? इसके कुछ तो मायने है। कहीं ऐेसा तो नहीं कि भूपेश बघेल ने उनके समक्ष बढ़-चढ़ कर विकास के दावे व योजनाओं की सफलता के किस्से बताए होंं जिसे राहुल गांधी मौके पर देखने आ रहे हों। यदि ऐेसा ही है तो योजनाओं की तारीफ भी हो सकती है और कलई भी खुल सकती है। दरअसल भूपेश सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट नरवा, गरवा, घुरवा व बाड़ी के साथ ही गोधन न्याय योजना सफलता के घोड़े पर सवार नहीं बल्कि अधिकांश गांवों में बेहद खराब अवस्था में है। इसके अलावा भूपेश सरकार के पास दिखाने कुछ भी नहीं है। यह जरूर है नगर निगमों की तरह सड़क, बिजली, पानी आदि का कार्य हो रहा है। सूबे में ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया गया है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। एक तरह से यह अच्छा ही है राहुल गांधी अपनी सरकार के कार्यों को मौके पर देखने आ रहे हैं। इससे कम से कम उनको यह तो अंदाजा हो जाएगा कि उनकी पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में जिन कार्यों की बखान उनके मुख्यमंत्री किए हैं उसके भरोसे फिर से सरकार बना पाएगी या नहीं। बेहतर यह है कि उन कार्यों व स्थान का चयन खुद राहुल गांधी सरप्राइज व रेंडमली करें तो ही सही तस्वीर सामने आ सकेगी।

कांग्रेस की बुनियाद हिल गई
सूबे में सत्ता बचाने को लेकर जिस ढंग से गुटबाजी को अंजाम दिया गया इससे कांग्रेस की वर्ष 2018 में निर्मित की गई मजबूत बुनियाद हिला दी गई। अब सियासी गलियारे में चर्चा यह होने लगी है कि कांग्रेस वर्ष 2023 का विधानसभा चुनाव जीत पाएगी या नहीं? इस पर सवालिया निशान लग गया है। भूपेश बघेल के सत्ता संभालने के बाद करीब डेढ़ साल तक यह लग रहा था कि 2023 के विधनासभा चुनाव में कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। यह पिछले करीब एक साल से थोड़ी धुंधला हो गया था, तब भी यही लगता था कि जैसे भी कांग्रेस सरकार बना लेगी। जुलाई 2021 के अंतिम दिनों से लेकर अगस्त माह तक सत्ता व गुटबाजी का जो कोहराम मचाया गया इससे सीधे तौैर पर कहा जा रहा है कि कांग्रेस 2023 में सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी। इस बारे में सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन सत्ता बचाए रखने गुटबाजी का जो तांडव रायपुर से लेकर दिल्ली तक कराया गया। इससे अब प्रश्नचिंह लग गया है। दरअसल कांग्रेस के दो बड़े नेता आपस में सत्ता की लड़ाई कर रहे हैं इससे जनता में गलत संदेश जा चुका है। इस तरह के दौर से कांग्रेस पिछले 15 साल से भुगत चुकी है। इसे देखते हुए बेहद संभल कर चलने की जरूरत थी, लेकिन मुख्यमंत्री भूपेेश बघेल इसमें विफल रहे। इसके चलते कांग्रेस की अचछी खासी स्थिति खराब होते दिख रही है। इसका एक कारण ढाई-ढाई का फार्मूला कुछ हद तक हो सकता है लेकिन सत्ता की लड़ाई में उपजाई गई गुटीय लड़ाई बड़ा कारण बन कर उभरा है।
साभार: छत्तीसगढ़ स्पेक्ट्रम, ब्रजेश चौबे, मौहाभाठा 9425565277

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