दुर्ग/भिलाई (सीजीआजक न्यूज). वैश्विक महामारी कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान काम से निकाले गए राजस्थान पत्रिका (छत्तीसगढ़) के कर्मचारियों ने न्याय के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। छत्तीसगढ़ के दो दर्जन कर्मचारियों ने बिना कारण और मजीठिया वेजबोर्ड लागू करने से पीछा छुड़ाने की नियत से काम से निकालने का आरोप लगाकर कोर्ट की शरण में पहुंचे हैं।
छत्तीसगढ़ में निकाले कर्मचारियों की संख्या
पत्रिका प्रबंधन ने पूरे राज्य (छत्तीसगढ़) से विभिन्न संस्करणों और जिलों में कार्यरत कर्मचारियों को काम से बाहर निकाल दिया है। इनमें दुर्ग संभाग के भिलाई संस्करण सहित बेमेतरा, कवर्धा, राजनांदगांव के दो दर्जन कर्मचारी शामिल है। इसी तरह कोरबा से-5, अंबकापुर-7, रायगढ़-2, बिलासपुर-12, जगदलपुर से-5 के अलावा अन्य और शामिल है।
मीडिया की दुर्दशा की लंबी गाथा
मीडिया की दुर्दशा की लंबी गाथा है। वो लोग दूसरों का क्या भला करेंगे जो अपने कर्मचारियों का शोषण करने में सबसे आगे हैं और उनके कर्मचारी आम जनता का क्या भला करेंगे जब वो खुद शोषण का शिकार हो। लेकिन एक बात जो सबको ज्ञात होनी चाहिए वो यह है कि ठेके पर कार्यरत इन कर्मचारियों को चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। इस प्रकार के मामलों में उच्च न्यायालय में कम्पनसेशन के तहत मीडिया संस्थानों पर केस करने के लिए एकजुट होना चाहिए, क्योंकि ऐसे ज्यादातर मामले इकतरफा एग्रीमेंट से जुड़े होते हैं और जितने वर्षों तक कम तनख्वाह में काम किया है। उसके पूरे वेतनमान के भुगतान के लिए वेजबोर्ड के अनुसार वेतन की गणना करके सीधे भुगतान के लिए संबंधित लेबर कमिश्नर के यहां पूरा वेतन दिलवाने के लिए शिकायत दायर करनी चाहिए। क्योंकि वेजबोर्ड में इस बात का प्रावधान किया गया है कि कर्मचारी भले ही ठेके पर हो लेकिन उसे वेजबोर्ड द्वारा अधिसूचित वेतन से कम वेतन नहीं दिया जा सकता।
इन दिनों अखबारों में छंटनी की बेतहाशा
खबरें चिंतित करने वाली है। कोरोना से मीडियाकर्मियों के मरने का सिलसिला जारी है. रिपोर्टिंग करने वाले मीडियाकर्मी, न्यूज एडिटर और एडिटर आदि को तो सरकारी सहायता मिल जाती है। लेकिन डेस्क पर काम करने वाले तथा अन्य मीडियाकर्मियों को न तो कोई सहायता और न ही उनके अपने संस्थानों से कोई मुआवजा ही मिल रहा है। इसके पीछे मीडिया संस्थानों के मालिकों का अपने कर्मचारियों के प्रति प्रतिकूल व्यवहार माना जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो मनमाने ढंग से वेतन दिया जाता है। प्रिंट मीडिया के लिए समय-समय पर वेतन आयोग गठित किये जाते रहे हैं और वर्तमान में मजीठिया वेतन आयोग के अनुसार वेतन देय है लेकिन ज्यादातर संस्थानों ने इससे बचने के लिए कम वेतन पर मीडियाकर्मियों की भर्ती की है।
यह है मजीठिया वेजबोर्ड प्रकरण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 7 फरवरी, 2014 को मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरुप पत्रकारों व गैर पत्रकार कर्मियों को वेतनमान, एरियर समेत अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुरुप नवम्बर 2011 से एरियर और अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए हैं, लेकिन समानता, अन्याय के खिलाफ लडऩे, सच्चाई और ईमानदारी का दंभ भरने वाले राजस्थान पत्रिका ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालन नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उडाते हुए राजस्थान पत्रिका प्रबंधन ने मानवीय पहलु और कानूनों को ताक में रखकर अपने कर्मचारियों से जबरन हस्ताक्षर करवा लिए, ताकि उन्हें मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतन परिलाभ नहीं दे पाए। हस्ताक्षर नहीं करने वाले कर्मचारियों को स्थानांतरण करके प्रताडि़त किया गया। सैकड़ों पत्रकारों व गैर पत्रकारों के दूरस्थ क्षेत्रों में तबादले कर दिए गए।
विज्ञापन दरों में बढ़ोतरी समेत कई अन्य रियायतें
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों, श्रम विभाग और सूचना व जन सम्पर्क निदेशालयों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए जिम्मेदारी तय की है, लेकिन इन्होंने कोई पालन नहीं करवाई। जबकि मजीठिया वेजबोर्ड बनने के साथ ही केन्द्र सरकार ने समाचार-पत्रों पर वेतन-भत्तों का बोझ नहीं पड़े, इसके लिए विज्ञापन दरों में बढ़ोतरी समेत कई अन्य रियायतें प्रदान कर दी थी। वर्ष 2008 से देश-प्रदेश के समाचार पत्रों में सरकारी विज्ञापन बढ़ी दरों पर आ रहे हैं और दूसरी रियायतें भी उठा रहे हैं। इस बीच विज्ञापनों से समाचार-पत्रों ने करोड़ों-अरबों रुपए कमाए, लेकिन इसके बावजूद पत्रिका प्रबंधन अपने कर्मचारियों को मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतन परिलाभ नहीं दे रहे हैं।
क्या है मामला?
पिछली यूपीए सरकार ने पत्रकारों के वेतन को पुन: निर्धारण के लिए मजीठिया वेज बोर्ड गठित किया था. बोर्ड पूरे देशभर के पत्रकारों और मीडिया कर्मियों से बातचीत कर सरकार को अपनी सिफारिश भेजी थीं। तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने इन सिफारिशों को मानते हुए, इसे लागू करने के लिए अधिसूचना जारी की थी। लेकिन अख़बार मालिकों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे लागू करने के आदेश पर मुहर लगा दी।