चांद धरती से भी ज्यादा लोहा होने के संकेत

चांद हमारा सबसे नजदीकी पड़ोसी है और इंसानों को शायद सबसे ज्यादा जानकारी इसी के बारे में होगी। बावजूद इसके वैज्ञानिकों के सामने चांद की सतह से जुड़ी एक ऐसी सच्चाई सामने आई है जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी। चांद के गड्ढों में बर्फ ढूंढ रहे वैज्ञानिक उस वक्त हैरान रह गए जब उन्हें वहां बर्फ से ज्यादा कुछ और मिला, जिससे न सिर्फ रहस्य का खुलासा होगा कि चांद कैसे बना बल्कि चांद और पृथ्वी के बीच कनेक्शन के तार भी सुलझेंगे।

चांद की सतह पर मेटल्स यानी धातुओं की मौजूदगी है, यह तो वैज्ञानिकों को पता था लेकिन NASA के लूनर रिकॉनसेंस ऑर्बिटेर (LRO) स्पेसक्राफ्ट के मिनियेचर रेडियो फ्रीक्वेंसी इंस्ट्रूमेंट (Mini-RF) ने पाया है कि इनकी मात्रा हमारे अंदाजे से कहीं ज्यादा है और वहां लोहे और टाइटेनियम का भंडार है। अर्थ ऐंड प्लैनटरी साइंस लेटर्स में छपी इस खोज से जुड़े जॉन हॉपकिन्स अप्लाइड फिजिक्स लैबरेटरी से Mini-RF के प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर वेस पैटरसन का कहना है कि रेडार इंस्ट्रूमेंट ने हमारे सबसे करीबी पड़ोसी की उतपत्ति और कॉम्पलेक्सिटी की नई जानकारी देकर हमें हैरान कर दिया है। आखिर ये स्टडी इतनी खास क्यों है?

दरअसल, अभी तक के सबूतों के आधार पर माना जाता रहा है कि मंगल ग्रह के आकार के प्रोटोप्लैनेट या प्राग्गह और एकदम नई पृथ्वी के बीच टक्कर से चांद की उतपत्ति हुई थी। इसलिए चांद का ज्यादातर केमिकल कंपोजिशन पृथ्वी से मिलता जुलता है। इसकी गहराई में जाकर देखें तो पाएंगे कि चांद का अंदरूनी हिस्सा एक समान नहीं है। चांद की सतह के उजाले हिस्से जिन्हें लूनर हाईलैंड्स कहा जाता है, वहां चट्टानों में पृथ्वी की तरह कुछ मात्रा में मेटल मिलते हैं। अगर यह माना जाए कि टक्कर के वक्त पृथ्वी की परतें अच्छी तरह से कोर, मैंटल और क्रस्ट में विकसित हो चुकी थीं तो यह समझा जा सकता है कि चांद के अंदर ज्यादा मेटल नहीं रहा होगा। हालांकि, जब चांद के अंधेरे वाले हिस्से मरिया को देखा जाता है तो पता चलता है कि वहां कई जगहों पर पृथ्वी से भी ज्यादा मेटल है।

इस अंतर की वजह से वैज्ञानिक हमेशा से उलझन में रहे हैं और इस बात पर शोध जारी रहा कि आखिर दूसरे पराग्ग्रह का चांद पर कितना असर रहा होगा। Mini-RF को अब एक पैटर्न मिला है जिससे इस सवाल का जवाब मिल सकता है। इसकी मदद से रिसर्चर्स को चांद के Northern Hemisphere यानी उत्तरी गोलार्ध के क्रेटर्स की मिट्टी में एक इलेक्ट्रकिल प्रॉपर्टी मिली है। इस इलेक्ट्रिकल प्रॉपर्टी को डाइइलेक्ट्रिक कॉन्स्टेंट कहते हैं। किसी मटीरियल और स्पेस के वैक्यूम में इलेक्ट्रिक फील्ड ट्रांसमिट करने की रेलेटिव अबिलिटी यानी सापेक्ष क्षमता को डाइइलेक्ट्रिक कॉन्स्टेंट कहते हैं। इसकी मदद से गड्ढों में छिपी बर्फ को खोजा जा रहा था। हालांकि, टीम को पता चला कि गड्ढे के आकार के साथ-साथ यह क्षमता भी बढ़ती जा रही थी। यानी जितने बड़े क्रेटर, उतना ज्यादा डाइइलेक्ट्रिक कॉन्स्टेंट।

इस स्टडी के मुख्य लेखक लॉस ऐंजिलिस की यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया से Mini-RF एक्सपेरिमेंट के को-इन्वेस्टिगेटर एसम हेगी का कहना है कि इस बारे में पहले कभी अंदाजा ही नहीं लगाया गया कि यह प्रॉपर्टी कभी मिल भी सकती है। दरअसल, इसकी मदद से अब चांद के बनने को लेकर एक नई संभावना की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान गया है। चांद पर विशाल गड्ढे छोड़ने वाले उल्कापिंड उसकी गहराई में जाते हैं। इसलिए टीम का अंदाजा है कि बड़े आकार के गड्डों में इस खास प्रॉपर्टी की वजह यह है कि जब उल्कापिंड इन गड्डों की गहराई में जाते हैं तो चांद की अंदरूनी सतह से लोहे और टाइटेनियम ऑक्साइड जैसे मेटल बाहर निकल आते हैं जो आमतौर पर सतह के काफी नीचे रहते हैं और उनकी मौजूदगी के बारे में पता नहीं चलता है। जितनी ज्यादा इन मेटल्स की मात्रा होती है, डाइइलेक्ट्रिक प्रॉपर्टी भी उतनी ही ज्यादा होती है। अगर यह थिअरी सही है तो इसका मतलब होगा कि चांद की सतह के कुछ सौ मीटर तक लोहे और टाइटेनियम ऑक्साइड की कमी है लेकिन उसके नीचे इनका भंडार।

और इस बात की पुष्टि भी तब हो गई जब Mini-RF के रेडार से मिलीं तस्वीरों और LRO के वाइड ऐंगल कैमरा, जापान के कगूया मिशन और नासा के लूनर प्रॉस्पेक्टर स्पेसक्राफ्ट से मिले मेटल ऑक्साइड के मैप की तुलना की गई। बड़े गड्ढों में सतह से आधे किलोमीटर नीचे तक कम मेटल मौजूद था जबकि आधे किलोमीटर से लेकर 2 किलोमीटर नीचे तक बेहद बड़ी मात्रा पाई गई। NASA के गॉडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में LRO प्रॉजेक्ट साइंटिस्ट नोओ पेट्रो का कहना है कि Mini-RF से मिलने वाले नतीजों से पता लगता है कि लूनर स्पेसक्राफ्ट के चांद पर 11 साल तक ऑपरेशन करने के बाद भी हम अपने सबसे नजदीकी पड़ोसी के पुरातन इतिहास के बारे में नई खोजें कर रहे हैं। भले ही अभी सारे रहस्य सीधे-सीधे न खुलें लेकिन इस डेटा के मिलने के साथ ही यह पता लगाने की संभावनाएं बढ़ गई हैं कि चांद कैसे बना था और 4.5 अरब साल पहले ब्रह्मांड में दरअसल हो क्या रहा था।

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