शिव ‘राज’ के 100 दिनः कोरोना काल में संतुलन बिठाने की कवायद में अकेले दिखे 'मामा'

भोपाल।
बात इस साल मार्च महीने की है जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिर चुकी थी और बीजेपी अपने नेता का चुनाव कर रही थी। दिल्ली में बैठकों के बाद शिवराज सिंह चौहान () के नाम पर सहमति बन चुकी थी और भोपाल में विधायक दल की मीटिंग के बाद इसकी औपचारिक घोषणा होनी थी। दिल्ली से आए केंद्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में मीटिंग से ठीक पहले नरोत्तम मिश्रा ने उनके नाम का खुलासा कर दिया। शिवराज (CM Shivraj Singh Chouhan) की चौथी पारी के पहले 100 दिन ऐसे ही रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे सरकार मामा चला रहे हैं, लेकिन उसकी नकेल किसी और के हाथों में है। लगातार 15 साल तक सीएम रहने के बाद इस पारी में उनकी लगाम कभी पार्टी नेतृत्व तो कभी और कभी नरोत्तम मिश्रा तो कभी कैलाश विजयवर्गीय के हाथों में होने का अहसास होता है। शिवराज इन सबके बीच संतुलन बिठाने की कवायद में ही उलझे नजर आते हैं।

ऐसा नहीं है कि इन 100 दिनों में शिवराज () ने अपनी छाप छोड़ने की कोशिश नहीं की। अपनी छवि के मुताबिक उन्होंने गरीबों और किसानों के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले लिए। गरीबों के लिए संबल योजना फिर से शुरू की, प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर तैयार किए, महिलाओं को सहूलियतें दीं और गरीबों के खाते में पैसे पहुंचाए। कई जगहों पर माफिया के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई हुई। गेहूं खरीदी में रेकॉर्ड बनाकर एमपी देश का नंबर एक राज्य भी बना। उन्होंने के संक्रमण को नियंत्रित करने में बेहतरीन काम किया। इससे पैदा हुई परिस्थितियों से निबटने के लिए भी उन्होंने कई बड़े और कारगर फैसले लिए।

कोरोना के बढ़ते संक्रमण के बीच मार्च महीने में शिवराज की ताजपोशी में सबसे अहम भूमिका ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत की थी। सिंधिया के साथ 22 पूर्व विधायक कांग्रेस छोड़ बीजेपी में आए और शिवराज फिर से मुख्यमंत्री बने तो लगा कि छींका बिल्ली के भाग से ही टूटा है, लेकिन इसके बाद से उनकी किस्मत उन्हें बार-बार दगा दे रही है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद कोरोना वायरस का संक्रमण प्रदेश के सभी 52 जिलों में फैल गया। इतना ही नहीं, राजधानी भोपाल, इंदौर और उज्जैन जैसे शहर प्रदेश में कोरोना के हॉटस्पॉट बन गए। हालात अब नियंत्रण में आते हुए दिख रहे हैं, लेकिन इन शहरों को दोबारा पटरी पर लाने में अभी काफी वक्त लगेगा।

शिवराज की ताजपोशी भले सिंधिया की बगावत के बूते हुई हो, लेकिन इसके बाद से सिंधिया फैक्टर ही उनके कामकाज में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। कैबिनेट में सिंधिया-समर्थक पूर्व विधायकों की हिस्सेदारी पर मामला उलझा तो उन्हें करीब एक महीने तक अकेले ही राजकाज चलाना पड़ा। फिर 5 मंत्रियों की मिनी कैबिनेट बनी, लेकिन शिवराज को अपने भरोसेमंद नेताओं की जगह सिंधिया-समर्थकों को इसमें शामिल करना पड़ा। इसके बाद से कैबिनेट विस्तार की जब कभी सुगबुगाहट हुई, सिंधिया फैक्टर इसमें आड़े आ गया। नतीजा, 100 दिन बीतने के बाद भी शिवराज अपनी कैबिनेट नहीं गठित कर पाए हैं।

केवल सिंधिया ही नहीं, बीजेपी के पुराने नेता भी शिवराज की राह में कांटे बोने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। प्रदेश सरकार में नंबर दो की हैसियत पाने वाले नरोत्तम मिश्रा से उनके मतभेद नए नहीं हैं, लेकिन समय के साथ नरोत्तम अब पार्टी के केंद्रीय नेताओं के भी नजदीक आ चुके हैं। कमलनाथ सरकार को गिराने में भी उनकी सबसे अहम भूमिका थी और इसलिए सीएम अब उन्हें हलके में लेने की गलती नहीं कर सकते। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय हों या केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर या फिर प्रदेश अध्यक्ष वी डी शर्मा, शिवराज इनमें से किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा नहीं कर सकते।

शिवराज की चौथी पारी के 100 दिन मंगलवार को पूरे हुए, लेकिन इस मौके पर बीजेपी की ओर से राज्य में कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं हुआ। इसकी बजाय कांग्रेस पार्टी ने पूरे प्रदेश में काला दिवस मनाया। शिवराज को लेकर कोई चर्चा हुई भी तो कैबिनेट विस्तार में उलझनों की हुई। जिस मौके पर शिवराज अपनी उपलब्धियां गिनाते, चुप रहना उनकी मजबूरी बन गई। शिवराज की इस पारी के पहले 100 दिनों की यही कहानी रही है। सब कुछ करने के बाद भी लाइमलाइट कोई और ले जाता है। फील्डिंग सजाने में वे कई बार अपनी बैटिंग को इग्नोर करते नजर आते हैं।

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