जगदलपुर(सीजीआजतक न्यूज). वैसे तो श्रम विभाग श्रमिक और कर्मचारियों के हितों के लिए बनाया गया है लेकिन अगर श्रम विभाग के अधिकारी ही नियोक्ताओं से मिलीभगत कर लें, तो कर्मचारी किसकी शरण में न्याय की गुहार लगाए। ऐसा ही एक मामला जगदलपुर (बस्तर) में कोरोना काल में राजस्थान पत्रिका से निकाले गए कर्मचारी की सुनवाई के दौरान श्रम विभाग में सामने आया।
होम आइसोलेशन का हवाला देते रहे श्रम पदाधिकारी बीएस बरिहा
मामले में जब श्रम अधिकारी से कहा गया कि अब तक मामला न्यायालयीन विचार हेतु क्यों नहीं भेजा गया, तो उनका कहना था कि वे कोरोना संक्रमित हो गए थे। उनके कोरोना संक्रमित होने से लेकर स्वस्थ होने का समय महज़ 16 दिनों का और प्रकरण पिछले 75 दिनों से लंबित है।
श्रम विभाग का कारनामा, अंतिम अवसर की चेतावनी के बाद दिया और दो सुनवाई का मौका
श्रम पदाधिकारी पत्रिका प्रबंधन पर इतने मेहरबान क्यों है
मामले में अंतिम अवसर नियत की गयी थी तो फिर अंतिम अवसर के बाद भी तीन अवसर क्यों दिये जा रहे हैं? इस सवाल पर बरिहा का कहना था कि प्राप्त शिकायत को औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत पंजीबद्ध नहीं किया गया था। वहीं अंतिम अवसर के बाद दूसरी पेशी में 6 जनवरी 2020 को मामला उक्त अधिनियम में पंजीकृत किया गया है और नियमत: अधिनियम में पंजीयन के बाद अनावेदक को कुछ अवसर देना पड़ता है? तो अब तक श्रम विभाग क्या इतने दिनों तक (सुप्रीम कोर्ट के आदेश 45 दिनों में सुनवाई पूरी करनी है) के नियम को ताक पर रख झक मार रहा था।
मामला पंजीबद्ध ही नहीं तो, 2 महीने में 7 पेशी कैसे
इस पर श्रम पदाधिकारी का कहना था की प्रथम प्राप्त पत्र शिकायत प्रारूप में था जिसे अधिनयम में पंजीबद्ध नहीं किया जा सकता था। श्रम पदाधिकारी की गलतियों के कारण आवेदक को विभाग का चक्कर लगाना पड़ रहा है। बीते 6 पेशी में श्रम पदाधिकारी को अधिनियम का ध्यान नहीं रहा यह बात उनके कर्तव्यों और श्रम कानून का खुला उलंघन है।
बिना अॅथारिटी लेटर के पेशी में उपस्थिति दर्ज क्यों की गयी
11 जनवरी 2020 को हुए पेशी में पत्रिका प्रबंधन की तरफ से जगदलपुर के सर्कुलेशन विभाग के प्रबंधक ब्रहानंद शर्मा उपस्थित हुए। श्रम पदाधिकारी ने पत्रिका प्रबंधन की तरफ से उपस्थित शर्मा से न तो उनके अॅथारिटी लेटर की मांग की और न ही उनके परिचय पत्र की। लेकिन आवेदक को दिलासा मात्र देने के लिए ये ज़रूर कहा कि अनावेदक अगली पेशी में अथारिटी लेटर लेकर आएंगे। बता दे कि पिछली पेशी में भी सक्षम अधिकारी को उपस्थित होने का आदेश दिया गया था। श्रम पदाधिकारी अपने ही आदेश का पालन नहीं करवा पा रहा है। पत्रिका की ओर से उपस्थित शर्मा ने स्वयं स्वीकार किया कि वह प्रबंधन की तरफ से निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। इस पर भी श्रम पदाधिकारी ने कोई कार्रवाई नहीं की।
पत्रिका प्रबंधन के अनुसार पेशी तिथि का निर्धारण करते हैं बरिहा
11 जनवरी 2020 को हुई पेशी में पत्रिका की तरफ से उपस्थित व्यक्ति ने निर्णय लेने में अपने को अक्षम को बताया और 26 जनवरी के बाद की अगली पेशी मांगी तो श्रम पदाधिकारी ने उनकी मांग पर 28 जनवरी 2020 को अगली पेशी नियत कर दी। उल्लेखित प्रकरण को श्रम विभाग जगदलपुर में लंबित हुए 3 महीने हो गए हैं, जबकि छतीसगढ़ उच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक औद्योगिक विवाद और पत्रकार कानून के अंतर्गत लंबित प्रकरण को 45 दिनों में निपटारा करना है। यदि निपटारा असफल होता है तो संबन्धित मामले को श्रम न्यायालय में विचार हेतु भेजा जाना है। इस नियम की श्रम पदाधिकारी ने अनदेखी कर दी।
पत्रिका के प्रधान संपादक को समन भेजने की तैयारी
मामले में हुई अब तक की सुनवाई में पत्रिका प्रबंधन अनुपस्थित रहा। कभी भी निर्णय लेने में सक्षम अधिकारी उपस्थित नहीं हुआ। पत्रिका प्रबंधन की इन हरकतों से यह साफ जाहिर होता है वो न्यायालयीन प्रक्रिया को हल्के में ले रहा है। पत्रिका के इस रवैये को देखते हुए श्रम पदाधिकारी ने पत्रिका के प्रधान संपादक को अगली पेशी में उपस्थिति के लिए समन भेजने की बात कही है।
पत्रिका के शब्द कुमार सोलंकी पर न्यायालय की अवमाना का केस
6 जनवरी 2020 को हुए पेशी में आवेदक ने समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी थी, किन्तु पत्रिका प्रबंधन के शब्द कुमार सोलंकी नियत समय से 1 घंटे देर से पहुंचा। जिसकी सूचना उन्होंने श्रम पदाधिकारी को मोबाइल के माध्यम से दी। साथ ही प्रकरण के दस्तावेज में टिप्पणी/टीप लिख दिया था जो नियम विरुद्ध है। इस पर भी श्रम पदाधिकारी ने शब्द कुमार के खिलाफ कार्रवाई नहीं की बल्कि पहली गलती मानकर मुआफ कर दिया।
आवेदक पर ही सवाल उठाने लगे श्रम पदाधिकारी
समान्यत: श्रम पदाधिकारी के पास लंबित प्रकरण में दोनों पक्षों में सुलह न होने की स्थिति में प्रकरण न्यायालय में भेजा जाता है। लेकिन श्रम पदाधिकारी ही जब अनावेदक की पैरवी करने लगे तो आवेदक कहां जाए न्याय मांगने? इसी मामले में बरिहा ने कह दिया कि आवेदक द्वारा की गई मांग का वो अधिकार नहीं रखता और आवेदक को ही अपने अधिकार का साक्ष्य दिखने को कह दिया। इससे ऐसा लगा कि श्रम पदाधिकारी पीडि़त को न्याय दिलाने में नहीं बल्कि प्रबंधन का पक्ष मजबूती से रखने में गैर कानूनी तरीके से जोर दे रहा था।