इंसानों पर पहले ट्रायल में सफल रही कोरोना वायरस की वैक्सीन अब अगले चरण में कदम रखने जा रही है। अभी तक के नतीजे सफल और सुरक्षित पाए गए हैं। ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के जेनर इंस्टिट्यूट के रिसर्चर्स फार्मासूटिकल कंपनी AstraZeneca के साथ मिलकर इस वैक्सीन ChAdOx1 nCoV-19 (AZD1222) पर काम कर रहे हैं। AstraZeneca इस वैक्सीन के लिए सप्लाई चेन बना रही है जिससे कि जल्द से जल्द इस वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाया जा सके। इस वैक्सीन को लेकर कई सवाल भी लोगों के मन में हैं कि आखिर यह कैसे बनी है और क्यों बाकी वैक्सीन से आगे हैं। साथ ही सबसे बड़ा सवाल यह है कि आम लोगों को यह कब तक मिल सकेगी। आइए जानते हैं ऐसे ही 5 बड़े सवालों के जवाब…
Lancet में छपे रिसर्च पेपर में बताया गया है कि यह वैक्सीन वायरल वेक्टर से बनी है जिसमें COVID-19 बीमारी पैदा करने वाले कोरोना वायरस SARS-CoV-19 का स्पाइक प्रोटीन होता है। स्पाइक प्रोटीन की मदद से ऐंटीबॉडी वायरस को पहचान पाती हैं। वैक्सीन में इस्तेमाल किया गया वायरल वेक्टर उस वायरस को जेनेटिकली इंजिनियर करके बनाया गया है, जिससे चिंपानिजयों में सर्दी-जुखाम होता है। इसे इस तरह से इंजिनियर किया गया है कि यह दिखता कोरोना वायरस जैसा है जिसकी वजह से इंसानों में इससे लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता पैदा होती है लेकिन इन्फेक्शन नहीं होता।
18-55 साल की उम्र के लोगों पर वैक्सीन का ट्रायल करने पर पता लगा कि इसने शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा की थी। इसमें स्पाइक प्रोटीन को पहचानने वाले T-cell और वायरस को बेअसर करने वाली ऐंटीबॉडी (IgG) भी देखी गई जो दूसरी डोज दिए जाने पर बढ़ गई। 90% लोगों में वायरस पर ऐक्शन करने वाली ऐंटीबॉडी पहली डोज के बाद और सभी लोगों में दूसरी डोज देने पर ऐंटीबॉडी की ऐक्टिविटी देखी गई। साथ ही यह भी देखा गया कि जिन लोगों को वैक्सीन दी गई थी उनमें सिरदर्द, बुखार, बदन दर्द जैसी शिकायतें हुईं लेकिन वह पैरासिटमॉल देने के बाद ठीक हो गईं। इसके ज्यादा गंभीर साइड इफेक्ट्स नहीं पाए गए जिनसे लोगों को बड़ा खतरा हुआ हो।
ऑक्सफर्ड की वैक्सीन को इस रेस में सबसे आगे माना जा रहा है। न सिर्फ उसके पास AstraZeneca जैसी कंपनी का साथ है बल्कि खुद वैक्सीन भी दूसरे कैंडिडेट्स से अलग है। दरअसल, इसके ट्रायल के नतीजों में पाया गया है कि वैक्सीन से ऐंटीबॉडी और वाइट ब्लड सेल- Killer-T-cells बनते हैं। इसमें ऐंटीबॉडी (IgG) पाई गई है जो वायरस के स्पाइक प्रोटीन को पहचानकर उससे अटैच हो जाती है और वायरस स्वस्थ्य कोशिकाओं को इन्फेक्ट नहीं कर पाता। वहीं, Killer T-cells ऐसे वाइट ब्लड सेल्स या Leukocytes होते हैं जो वायरस के इन्फेक्शन के शिकार हुई कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें नष्ट कर देते हैं। ये दोनों साथ मिलकर शरीर को सुरक्षा देते हैं। ऐंटीबॉडी कुछ महीनों में खत्म भी हो सकती हैं लेकिन T-cells सालों तक शरीर में रहते हैं।
वैक्सीन के इंसानों पर इस पहले ट्रायल में सिर्फ 1077 लोग शामिल हुए थे। अभी तक के नतीजे सकारात्मक जरूर हैं लेकिन इनके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि अभी इसे आम जनता को दिया जा सकता है। इसके लिए अगले दो चरणों में ब्रिटेन में 10 हजार, अमेरिका में 30 हजार, दक्षिण अफ्रीका में 2 हजार और ब्राजील में 5 हजार लोगों पर टेस्ट किया जाएगा। तीसरे चरण के नतीजे आने के बाद ही यह तय होगा कि इसे लोगों को दिया जा सकता है या नहीं।
पहले ट्रायल में सफल होने के बाद इसे इमर्जेंसी में इस्तेमाल करने की इजाजत मिल सकती है। ऐसे में हो सकता है कि अक्टूबर तक इसे उन लोगों को दिया जा सके जिन्हें ज्यादा खतरा है, जैसे हेल्थकेयर वर्कर्स। Astrazeneca का मानना है कि अगले साल की शुरुआत में पूरी तरह से अप्रूवल मिल सकता है। उसके बाद ही यह साफ होगा कि आम जनता तक यह कब पहुंचेगी और वैक्सिनेशन शुरू होगा। आमतौर पर वैक्सीन्स को बनने में 10-15 साल लग जाते हैं। ऐसे में अगर यह 2021 की शुरुआत तक इसे अप्रूवल मिल जाता है, तो यह भी अपने आप में बड़ी सफलता होगी।
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