राजस्थान () में सत्ताधारी कांग्रेस में जारी घमासान का ठहराया सचिन पायलट पर कार्रवाई के साथ होता दिख रहा है। पार्टी ने मंगलवार को बड़ा फैसला लेते हुए सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री और पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष पद से हटा दिया। पायलट के वफादार दो अन्य मंत्रियों विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को भी मंत्री पद से हटा दिया गया है। राज्य के शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह दोतासारा को कांग्रेस का नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। कांग्रेस नेताओं ने सोमवार और मंगलवार को दो बैठकें बुलाई और पायलट से उसमें शामिल होने की अपील की। लेकिन वह दोनों बैठकों में नहीं पहुंचे। इसके बाद उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई।
पायलट खेमे ने रविवार को घोषणा की थी कि अशोक गहलोत सरकार राज्य में अल्पमत में है, क्योंकि 30 विधायक उनके समर्थन में हैं। इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस के लगभग सारे नेता मान रहे हैं कि यह कार्रवाई दुख के साथ की गई है। कार्रवाई की घोषणा करते हुए रणदीप सुरजेवाला ने साफ शब्दों में कहा कि परिवार से जब कोई अलग होता है तो दोनों पक्षों को नुकसान उठाना होता है।
ज्यादातर मौकों पर राजनीति में सुरजेवाला की कही बातें सही नहीं होती हैं, लेकिन सचिन पायलट के मामले में उनकी कही बातें गौर करने वाली है। राजनीति में तनिक भी दिलचस्पी रखने वाले लोगों के जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इस कार्रवाई से सचिन पायलट को क्या नुकसान होने वाला है। इस सवाल का जवाब राजस्थान के राजनीतिक पृष्ठभूमि में ही छिपी हुई है। आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
दुविधा में दोनों गए माया मिली ना राम…?
सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच विवाद की जड़ मुख्यमंत्री की कुर्सी है। करीब डेढ़ साल पहले राजस्थान में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो सभी को लग रहा था कि सचिन पायलट को राज्य की कमान मिलेगी। क्योंकि पायलट के करीब पांच साल की मेहनत के बाद राज्य की जनता ने कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी। लेकिन कांग्रेस की केंद्रीय नेतृत्व ने अशोक गहलोत को सत्ता सौंपी।
सत्ता सौंपने के दौरान राहुल गांधी के मान-मनौव्वल के बाद दोनों नेता इस पर सहमत तो हो गए थे, लेकिन मीटिंग खत्म होने के बाद गहलोत और पायलट अलग-अलग दरवाजे से बाहर निकले थे। उसी दौरान अटकलें शुरू हो गई थीं कि पायलट अपनी महत्वाकांक्षा को ज्यादा दिन दबाकर नहीं रख पाएंगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही, यदा कदा सचिन पायलट अपने मुख्यमंत्री से अलग जाकर बयानबाजी करते रहे। सरकार के सूत्र बताते हैं कि दोनों नेताओं की सोच में जेनरेशन गैप है, इस वजह से हमेशा टकराव के हालात बने रहे।
मुख्यमंत्री की चाहत रखने वाले सचिन पायलट अगर अब बीजेपी का रुख करते हैं तो वहां भी उनका मंसूबा पूरा होने की लगभग ना के बराबर उम्मीद है। बीजेपी की राजस्थान टीम में नेतृत्व की कहीं कोई कमी नहीं हैं। ऐसे में इसकी कम ही उम्मीद है कि बीजेपी उन्हें अपनी पार्टी में लेकर कभी चेहरा बनाने पर विचार भी कर सकती है।
सचिन का फैसला एक तरफ कुंआ, एक तरफ खाई?
सचिन पायलट की पकड़ अजमेर संभाग में रही है। वे यहां से सांसद भी रह चुके हैं। अजमेर संभाग में अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, पुष्कर, केकड़ी, शाहपुरा, मांडल, डीडवाना और खींवसर विधानसभा सीटें अहम हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में इस संभाग में बीजेपी चार, कांग्रेस दो व एक सीट पर निर्दलीय की जीत हुई थी। इस क्षेत्र में पायलट के जीत का समीकरण गुर्जर+वैष्य+मुस्लिम वोट रहे हैं।
सचिन पायलट गुर्जर समाज से आते हैं। अजमेर इलाके में गुर्जर और मुस्लिम वोटर निर्णायक रोल में हैं। कांग्रेस के निशान की वजह से मुस्लिम वोट सचिन पायलट को मिलता रहा है। इसके अलावा पूरे राज्य के करीब 7 फीसदी गुर्जर वोटरों को पायलट कांग्रेस के पाले में करते रहे हैं। अब जब पायलट अगर बीजेपी के टिकट पर अगर उतरते हैं तो गौर करने वाली बात होगी कि इस इलाके का बीजेपी नेतृत्व उन्हें कितना सपोर्ट करता है। साथ ही गुर्जर वोटों का बंटना तय होगा। वहीं अगर पायलट अपनी पार्टी बनाकर प्रत्याशी उतारते हैं तो कांग्रेस और बीजेपी के प्रत्याशी का सामना कैसे करेंगे।