बात 1974 की सर्दियों की है। क्लाइव लॉयड की अगुआई में वेस्टइंडीज की बेहद मजबूत क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आने वाली थी। पिछली टक्कर में भारत ने कैरेबियाई टीम को उनकी धरती पर ही पटकनी दे दी थी। उस अकल्पनीय परिणाम के बाद विंडीज टीम का भारत दौरा बदला लेने वाला माना जा रहा था।
मेजबान टीम हरेक मोर्चे पर चुनौती देने के लिए पूरी तरह से तैयार थी। बैटिंग सनसनी सुनील गावसकर और गुंडप्पा विश्वनाथ…मेहमानों की नींद उड़ाने वाली पेस बैटरी से निपटने में सक्षम थे…तो भारत की तिलस्मी स्पिन चौकड़ी…लॉयड के लड़ाकों के लिए हर तरह की मुश्किलें खड़ी करने को कमर कस चुकी थी।
दरवाजे पर दी जबर्दस्त दस्तक
सब कुछ प्लान के हिसाब से आगे बढ़ रहा था कि बैंगलोर में पहली भिड़ंत के ऐन पहले पता चला कि भागवत चंद्रशेखर, ईरापल्ली प्रसन्ना, एस वेंकटराघवन और बिशन सिंह बेदी की चौकड़ी में से कोई एक…पहले टेस्ट मैच से बाहर हो गया है। दरअसल, बेदी को अनुशासन से जुड़े किसी मामले में मैच में नहीं खिलाने का फैसला लिया गया था। यह खबर भारतीय फैंस के लिए चिंता का सबब थी तो यही खबर हरियाणा रणजी टीम के एक बेहद प्रतिभावान और मेहनती बोलर के लिए किस्मत के दरवाजे खोलने वाली भी थी।
गोयल पहुंचे मुहाने पर
बेदी के आने से पहले से फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेल रहे और साल दर साल सफलता की नई बुलंदियां छू रहे को सिलेक्टर्स की ओर से बुलावा भेजा गया। तब 32 साल के गोयल की जिंदगी का वह सबसे सुखद पल था। नई किट, नए बोलिंग बूट और नए बैट का इंतजाम कर राजिंदर…बैंगलोर में नैशनल टीम के साथ जुड़े। मैच के दिन के पहले वाली शाम तक हर तरफ यही चर्चा थी कि भारतीय स्पिन चौकड़ी में एक नया लेफ्ट आर्म स्पिनर जुड़ेगा। गोयल को फर्स्ट क्लास क्रिकेट में पिछले कई वर्षों की तपस्या का फल मिलेगा। वेस्टइंडीज के सामने एक सरप्राइज पैकेज होगा और दुनिया देखेगी कि भारत की स्पिन बोलिंग का खजाना कितने अनमोल हीरों से भरा है।
तो बेदी को ‘बचाने’ के लिए नहीं मिला गोयल को मौका
गोयल के लिए स्टेज तैयार था लेकिन मैच शुरू होने से ठीक पहले टीम के कप्तान नवाब पटौदी ने केवल तीन स्पिनर्स के साथ उतरने का फैसला लिया। गोयल का नाम लिस्ट में बारहवें खिलाड़ी के तौर पर दर्ज किया गया। आखिर क्या वजह हो सकती है इस हैरानी भरे फैसले के पीछे? आधिकारिक तौर पर इसका जवाब गोयल को पूरी ज़िंदगी कभी नहीं मिला लेकिन गावसकर अपनी किताब आइडल्स में बिना लाग लपेट के इस पर लिखते हैं, ‘मुझे ऐसा महसूस होता है कि सिलेक्शन कमिटी उन्हें खिलाने को तैयार नहीं थी। क्योंकि अगर उन्होंने कुछ विकेट निकाल लिए होते तो बेदी की वापसी थोड़े समय के लिए और टल सकती थी और सिलेक्टर्स के लिए ये बहुत शर्मनाक होता।’
750 घरेलू विकेट लेकिन…
बैंगलोर में 12वें खिलाड़ी बनने वाली उस घटना के बाद से अगले 11 साल तक गोयल डोमेस्टिक क्रिकेट में एक से बढ़कर एक धुरंधर बल्लेबाजों को घुटने टेकाते रहे, विकेटों का अंबार लगाते रहे, रेकॉर्ड बनाते रहे। मगर सिलेक्शन कमिटी के दरवाजे उनके लिए कभी नहीं खुले। घरेलू क्रिकेट में बोलिंग का ये शिखर पुरुष रेकॉर्ड 750 विकेट लेने के बावजूद एक अदद टेस्ट कैप की हसरत लिए रिटायर हो गया।
गोयल ही नहीं, लंबी कतार है
भारतीय क्रिकेट में यह कहानी सिर्फ राजिंदर गोयल की नहीं है। , , सुरेंद्र भावे, अरमजीत केपी, मिथुन मन्हास,श्रीधरन शरत, देवेंद्र बुंदेला, भास्कर पिल्लै, आशीष विंस्टन जैदी, राणादेब बोस, कोनोर विलियम्स, सितांशु कोटक, येरे गौड़। ये कुछ ऐसे नाम हैं जो डोमेस्टिक क्रिकेट में लगातार अपने दमदार प्रदर्शन की वजह से सुर्खियों में रहे लेकिन नैशनल सिलेक्टर्स की नजरें इन पर कभी इनायत नहीं हुईं।
शिवालकर भी रहे इंतजार में
राजिंदर गोयल के दौर के ही लेफ्ट आर्म स्पिनर पद्मकार शिवालकर में भी वह सारी खूबियां थीं जो किसी क्रिकेटर को आम से खास बनाती हैं। सनी गावसकर ने दुनिया भर के जिन 31 खिलाड़ियों को अपनी आइडल्स में जगह दी है उनमें कभी टेस्ट नहीं खेल सके सिर्फ दो ही क्रिकेटर हैं। राजिंदर गोयल और पद्मकार शिवालकर। अपनी घूमती गेंदों से मुंबई को कई रणजी खिताब दिलाने वाले शिवालकर ने सत्तर के दशक की शुरुआत में लगातार दो सीजन में रणजी ट्रोफी के सेमीफाइनल और फाइनल में कहर बरपाने वाली बोलिंग की।
पर क्रिकेट से निभाते रहे प्यार…
उन दिनों हर इंटरनैशनल सीरीज से पहले भारतीय टीम के ऐलान के दिन शिवालकर के सपने टूटते रहे। कहते हैं कि शिवालकर 48 साल की उम्र तक सिर्फ इस उम्मीद में फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेलते रहे कि कभी तो बुलावा आएगा। हालांकि, अब 80 साल के हो चले शिवालकर उन दिनों की चर्चा करने पर बताते हैं कि एक ‘टेस्ट टीका’ का सपना तो हर फर्स्ट क्लास क्रिकेटर का होता है। उनका भी था। लेकिन 1977 के सीजन के बाद से देश के लिए खेलने का उनका सपना टूट चुका था, दिल टूट चुका था। वह क्रिकेट से अपना प्यार भर निभाते रहे।
मुंबई की टीम में मिलती रही जगह…
मुंबई की टीम में सिलेक्ट होते रहे और खेल का सिलसिला यूं ही जारी रहा। शिवालकर को लेकर एक्सपर्ट कहते हैं कि वे टर्न लेती पिच पर ज्यादा घातक साबित होते थे। इससे राय से अपनी असहमति जताते हुए शिवालकर कहते हैं कि अगर पिच टर्न लेती है तो सामने वाली टीम के बोलर्स के लिए भी टर्न लेती है। तो सफलता एक ही तरफ के बोलर को ही क्यों हासिल होती है?
गावसकर का स्टंप उड़ाया था
शिवालकर एक किस्सा सुनाते हैं। मुंबई टीम में उनके जूनियर सुनील गावसकर 1971 के वेस्टइंडीज दौरे में टेस्ट क्रिकेट में आगाज करते हुए हीरो बन गए थे। वापसी पर मुंबई के एक क्लब मैच में गावसकर का सामना शिवा से हुआ। शिवा बताते हैं, ‘मुझे याद है उस मैच को देखने के लिए काफी तादाद में क्रिकेट फैंस इकट्ठे हुए थे। सभी गावसकर की बैटिंग देखने आए थे। मैंने एक गेंद डाली जिसे सनी ने डिफेंड किया। अगली गेंद को भी वे उसी अंदाज में खेलने गए लेकिन लेग स्टंप पर गिरी यह गेंद उनका ऑफ स्टंप ले उड़ी।’
जायज है सवाल
शिवालकर साल दर साल ऐसे ही कई दिग्गज बल्लेबाजों को अपनी स्पिन बोलिंग से छकाते रहे लेकिन सिलेक्टर्स को लुभाने में असफल रहे। ऐसा माना जाता है कि अपने प्रदर्शन की ऊंचाई के दिनों में शिवा और गोयल इसलिए भी भारतीय टीम में नहीं आ सके क्योंकि टीम में बेदी की तरह का दमदार लेफ्ट आर्म स्पिनर था। बाएं हाथ के इस खेल में वे बार-बार बेदी से पिछड़ते रहे। शिवालकर इस तर्क से भी इत्तफाक नहीं रखते। वे सवाल करते हैं कि अगर टीम में एक समय में प्रसन्ना और वेंकटराघवन के रूप में दो ऑफ स्पिनर खेल सकते थे तो फिर दो लेफ्ट आर्म स्पिनर को क्यों नहीं उतारा जा सकता था।
शिवालकर ने भी की गोयल की वकालत
शिवालकर अपने लिए नहीं तो गोयल के लिए वकालत करते हैं, ‘1974 के उस बैंगलोर टेस्ट में गोयल को खिलाया जाता तो रिजल्ट उलट जाता। भारतीय टीम वो मैच ज़रूर जीतती। मुझे कभी मौका नहीं दिया गया लेकिन कम से कम गोयल को एक बार तो आजमाते।’
अमोल मजूमदार, रन बनाए बेशुमार
अमोल मजूमदार मुंबई के शारदाश्रम स्कूल की उस टीम के हिस्सा थे जिसके दो खिलाड़ियों ने 1988 में 664 रन की रेकॉर्डतोड़ पार्टनरशिप करके दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी थीं। उस साझेदारी के दौरान अमोल पैडअप होकर घंटों अपनी बारी का इंतजार करते रहे लेकिन सचिन तेंडुलकर और विनोद कांबली ने उनको कोई मौका नहीं दिया। अमोल के करियर की भी कुछ ऐसी ही कहानी रही।
बल्ला बरसता रहा लेकिन दरवाजा नहीं खुला
मुंबई के लिए अपने पहले फर्स्ट क्लास मैच में नॉट आउट 260 रन बनाने के बाद अमोल डोमेस्टिक क्रिकेट के रन मशीन बन गए। मिडिल ऑर्डर में खेलते हुए उन्होंने 30 सेंचुरी ठोक दीं। कई सीजन में रणजी ट्रोफी के टॉप स्कोरर रहे। वह रणजी ट्रोफी के इतिहास में सबसे ज्यादा रन बनाने वालों की लिस्ट में दूसरे नंबर पर हैं। इन उपलब्धियों के बूते अमोल हर नए सीजन की शुरुआत इस उम्मीद के साथ करते कि कभी तो उनके बल्ले की गूंज उस गलियारे तक पहुंचेगी जिससे होकर टेस्ट टीम का दरवाजा खुलता है।
हमको मालूम है हकीकत लेकिन…
अफसोस कि दो दशकों के इंतजार के बाद भी वह दिन कभी नहीं आया। हमेशा आगे की ओर देखो…को जीवन का मंत्र बनाने वाले अमोल कहते हैं कि उन्हें पता है कि वे उस दौर में खेले जब उनके समकालीन सचिन तेंडुलकर, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, वीवीएस लक्ष्मण के रहते उनके लिए टीम इंडिया का दरवाजा अनलॉक करना मुश्किल था। मगर उन्हें इस सवाल के जवाब का इंतजार रहेगा कि क्या वे कभी 30 संभावितों की लिस्ट में आने की भी काबिलियत नहीं रखते थे।
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
देश के लिए खेलने की हसरत पाले…अपनी जिंदगी के कई दिन,महीने और साल खेल के नाम कर…रिटायर हो चुके ये ‘अनलकी महारथी’ अपने करियर को किस तरह देखते हैं? इस सवाल का सटीक जवाब शिवालकर देते हैं। संगीत के शौकीन पद्माकर कहते हैं कि अब उन बातों को सोचकर क्या फायदा..टाइम निकल गया…और फिर एक मशहूर गाने की कुछ पंक्तियां गुनगुनाते हैं, ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया।’